कुछ सपनों की बात चली
जो थे आधे में तुट गये
फिर तुम्हारा जिक्र हुवा
और हम खुद से ही रुठ गये
सन्नाटे की आवाज़े भी
हमने थी चुपचाप सुनी
खामोशी में गीत घुले थे
और बातों में वीरानी
यादों के फिर लंबे अजगर
थे लम्हों से लिपट गये
हां, तुम्हारा जिक्र हुवा
तो हम खुद से ही रुठ गये
बहाव में थे जो कभी बिछडे
इस संगम पर मिलते है
किस्सों के भी गुल गुलाबी
इस मौसम में खिलते है,
अतीत के महकते वो पल
दो सॉसों में सिमट गये
हां, तुम्हारा जिक्र हुवा
तो हम खुद से ही रुठ गये
-आदित्य नीला दिलीप निमकर.
क्या बात है... मस्त!!!
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